मैं पिघलने लगी हूँ शायद. ऐसा नहीं कि अब तक सख्त थी. पर यूं कि घुल जाने का मन करने लगा है. इतना की फर्क ही ना मालूम हो. कि मेरा आगाज़ और मेरा अंत दोनों बेमानी लगने लगे. पिघलना कुछ ऐसा भी कि मांग सकूं. बेधरक कभी माँगा नहीं मैंने. मांगने से हमेशा तो डरती रही हूँ, बड़े-बड़े शब्दों में खुद को उलझाती रही हूँ. अभी कुछ दिन पहले, बिन लफ्ज़ मैंने कुछ मांग लिया था. हो सकता है मुझे बिना बताए मेरी सिसकियों ने मेरे लिए पैरवी कि थी.
जो मिला तो अच्छा लगा था. :)
जो मिला तो अच्छा लगा था. :)