Tuesday, October 15, 2013

फूल-प्रूफ़

नेहा. सब कुछ समझना इतना भी ज़रूरी नहीं। तुम्हें क्योंकर लगता है कुछ है भी समझने को. जियो और ख़तम करो! हाँ ठीक है, माना तुम्हें कुछ (अच्छा, बहुत कुछ) बुरा लगा. तो क्या? लगा. लगा. लग गया.
---

आज दिल्ली याद आ रही है. घर याद आ रहा है. कुछ देर को ही सही 'घर' जाना है. कुछ ही दिनों में परेशान हो कर निकलना है वहां से, बड़बड़ाते हुए शायद. तब ही तो वहां जाना, वहां से निकल भागना, सब एक सुगठित प्लान सा लगेगा। फूल-प्रूफ़! ऐसा नहीं की मन में आया और चल दिए कही भी. अरे! हमें तो पता था की हम परेशान हो जायेंगे! और कुछ साल बीतेंगे तो कहेंगे खुद से - आह! कितने दूरदर्शी थे हम!

सच ये है की इन आँखों में नाम-मात्र भी दूर-दृष्टि नहीं है. कभी तो लगता है दृष्टि ही नहीं है. इधर-उधर गिरते-पड़ते चलते हैं. कुछ दरवाज़े खट-खटाते हर शाम. फिर खुद ही से कहते हैं, "अंधे हो क्या!"
---

क्या बकवास लिखा है! और तुम पढ़ते भी गए!