कभी कुछ हिंदी में लिखा पढ़ती हूँ तो सच लिखने का दिल करता है. सिर्फ सच. मानो सब सच हिंदी में ही बसा है और लिखने की देर है. मुझ जैसे प्रायः अंग्रेजी में लिखने वाली को भी यह यह लग सकता है, कुछ बात होगी हिंदी में. तभी शायद हिंदी किताबों में बूँद भर ही सही पर रस ज़्यादा ही होता है, स्कूल-कॉलेज के दिनों में हिंदी डिबेट हमेशा से ही मुझे अंग्रेजी डिबेट से ज़्यादा प्रभावशाली लगती थी. हिंदी-उर्दू की "मिलीभगत" में लिखी गईं कविताएँ भी थोड़ी ज़्यादा पसंद आती हैं मुझे. मानो की जो सच है, सही में सच है, किसी भी उपरीय-दिखावे रहित वह ही लिखा होगा इन कविताओं में. पर यह प्रेम काफ़ी व्यक्तिगत है. मैं किसी भाषा, देश, कौम से व्यक्तिगत लगाव से ज़्यादा कम ही महसूस कर पाती हूँ. लगाव इसलिए भी की मेरी माँ की हिंदी पर खूब पकड़ है. जितना अच्छा बोलती हैं हिंदी, उतनी ही कविताएँ मूंह-ज़बानी याद हैं उन्हें. बचपन से ही उन्हें हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं को पता नहीं कैसे आसान-सी धुनों में पिरो के गाते-गुनगुनाते सुना है. कई बार मुझे रोते से चुप भी कराया है उन्होंने राणाप्रताप या झाँसी की रानी पर लिखी कविताएँ सुना कर, और कई बार सुना है उन्हें किचन में खाना बनाते हुए, वही कविताएँ गाते हुए. यही वजह है कि कुछ छन्द मुझे भी याद हैं. सही मायनों में हिंदी मेरी 'मदर-टंग' है. शायद इसलिए अनकहा स्वाभाविक लगाव है हिंदी से. लिखने को बोलो तो प्रायः अंग्रेजी ही लिखी जाती है; किसी से मिलूं तो अंग्रेजी में बात करना ज़्यादा आसान लगता है - शायद इसलिए कि हिंदी में कुछ ज्यादा ही अपनापन है, नए लोगों से इतने अपनेपन के साथ बात नहीं होती आजकल.